हिंदी साहित्य के कालविभाजन और नामकरण के आधार पर संवत 1375-1700 वि. तक के कालखण्ड में सृजित हिंदी साहित्य में भक्ति भावना की प्रधानता होने के कारण आचार्य शुल्क ने इस काल को भक्तिकाल का नाम दिया है। प्रमुख आलोचक डा. नगेन्द्र ने इस समय सीमा को 1350-1650 ई. माना है। आदिकाल के वीरता और श्रृंगार से परिपूर्ण साहित्य से एकदम भिन्न इस काल के साहित्य में भक्ति की शान्त निर्झरिणी बहती है।
कोई भी साहित्यिक प्रवृत्ति यूँ ही अचानक विकसित नहीं होती, उसके पीछे कई सारे प्रमुख कारक, कई शक्तियाँ और तमाम परिस्थितियाँ सक्रिय रहती हैं। साहित्य भी इनसे अवश्य प्रभावित होता है और कालांतर में एक नया स्वरूप ग्रहण करता है। लगभग 300 वर्षों के भक्ति साहित्य का सृजन कोई सहज-सरल घटना नहीं थी। तत्कालीन इतिहास और समाज पर नजर डालें तो स्पष्ट होता है कि इसके पीछे कोई एक नहीं बल्कि अनेक परिस्थितियां सक्रिय थीं। संक्षेप में देखें तो भक्तिकाल में निम्नलिखित परिस्थितियां सामने आती हैं –
1. राजनीतिक परिस्थितियाँ:
- सन 1375-1526 ई तक उत्तर भारत में तुगलक वंश, सैयद वंश, लोदी वंश, तत्पश्चात मुगल आदि अनेक राजवंशों का शासन रहा। तुगलक वंश में न्याय व्यवस्था ‘कुरान’ और ‘हदीस’ पर आधारित थी।
- बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, और शाहजहाँ आदि का शासन भक्तिकाल की समय-सीमा में ही था। इसके अलावा कुछ वर्षों तक शेरशाह नामक अफगान का भी शासन रहा।
- जहाँ फिरोज शाह तुगलक हिंदुओं के प्रति असहिष्णु था वहीं शेरशाह ने मालगुजारी और कर की उचित व्यवस्था की।
- अकबर में अन्य मुगल शासकों की अपेक्षा हिन्दू जनता के प्रति अधिक सहिष्णुता थी तथा उसके शासन काल में भू-व्यवस्था में भी पर्याप्त सुधार हुआ।
- राजनीतिक दृष्टि से यह काल हिंदुओं के परायण का काल था।
इस तरह देखा जाए तो भक्तिकाल के आरम्भिक दिनों में इस्लामी आक्रांताओं के आगमन से यह काल उथल-पुथल, युद्ध, संघर्ष और अशांति का काल था। किंतु बाद में धीरे-धीरे शांति और स्थिरता की ओर बढ़ा।
2. सामाजिक परिस्थितियाँ:
- भक्तिकाल में भारतीय समाज प्रमुख रूप से दो वर्गों में विभाजित था। एक वर्ग राजा, महाराजा, सेठ-साहूकार, सुल्तान तथा सामंतों आदि का था वहीं दूसरे वर्ग में किसान, मज़दूर, दलित, राज्य कर्मचारी और पारम्परिक काम धंधे में लगे लोग थे।
- हिंदुओं में वर्ण व्यवस्था / जाति व्यवस्था अत्यंत कठोर थी और छुआछूत की भावना व्याप्त थी। इसी जाति व्यवस्था के कारण एक केन्द्रीय सत्ता होने के बावजूद भी समाज में एकता नहीं थी।
- स्त्रियों को बहुत अधिकार नहीं मिले थे, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिकता प्राप्त थी। सती प्रथा और पर्दा प्रथा का भी प्रचलन था।
- इस्लाम में मौजूद समानता की भावना ने वंचित वर्ग को आकर्षित किया। इसके परिणाम स्वरूप निम्न वर्ग के लोगों में हिन्दू धर्म से इस्लाम में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ।
- साधु सन्तों में पाखंड एवं वाह्याडम्बरों का बोलबाला था।
- कला के क्षेत्र में हिन्दू संस्कृति पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
- दोनों संस्कृतियों में पारम्परिक आदान-प्रदान हुआ।
भक्तिकाल में समाज परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था। एक तरफ परम्परावादी लोग अपनी परम्पराओं को बनाए रखने के पक्ष में थे तो दूसरी तरफ नव इस्लाम के हितैशी लोग स्वयं को प्रगतिशील बता कर समाज में बदलाव लाना चाहते थे। तत्कालीन कवियों की साहित्य सर्जना उक्त परिस्थितियों से प्रभावित थी और उनकी रचनाओं यह स्पष्ट देखा जा सकता है।
3. धार्मिक परिस्थितियाँ:
- वैदिक धर्म के स्वरूप में परिवर्तन हुआ तथा वैदिक कर्मकांडों की महत्ता कम हो गयी। इन्द्र, वरूण आदि अनेक वैदिक देवताओं के स्थान पर विष्णु (मूल ब्रह्म) की पूजा विभिन्न रूपों में होने लगी।
- वैदिक धर्म के केन्द्रीय देवता इन्द्र के स्थान पर विष्णु को मुख्य शक्ति के रूप में स्थापित किया गया। आगे चलकर विष्णु के ही दो रूपों को कृष्ण और राम के स्वरूप में स्वीकारा गया और इसी से क्रमशः कृष्ण भक्ति धारा और राम भक्ति धारा की उत्पत्ति हुई।
- बौद्ध धर्म विकृतियों के फलस्वरूप हीनयान और महायान दो शाखाओं में विभक्त हे गया।
- महायानियों ने जनता के निम्न वर्ग को जादू-टोना, तंत्र-मंत्र के चमत्कार दिखा कर प्रभावित किया।
- नाथों एवं सिद्धों में कर्मकांड के स्थान पर गुरु को महत्व दिया गया।
- हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों में पूजा, नमाज, माला, तीर्थयात्रा, अज़ान, रोजा जैसे वाह्य आडंबरों की अधिकता हो गयी थी।
- सूफियों ने हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता का आधार तैयार किया तथा समाज के सभी वर्गों में बंधुत्व की भावना का संचार किया।
- संत कवियों ने राम के लोक रक्षक स्वरूप तथा कृष्ण के लोक रंजक स्वरूप की स्थापना की।
- ईश्वर के सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को मान्यता।
दक्षिण से शुरू हुई भक्ति की लहर उत्तर भारत में भी आई और यहां इसे खुले दिल से स्वीकार भी किया गया। हिंदू और इस्लाम दोनों ही धर्मों में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों एवं बाह्याडम्बर को रोकने के लिए तत्कालीन संतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कबीर का समाज सुधार, जायसी का प्रेम, तुलसी का समन्वयवाद तथा सूरदास द्वारा कृष्ण के लोकरंजन स्वरूप का चित्रण निश्चय ही तत्कालीन परिस्थितियों की देन है।
4. सांस्कृतिक परिस्थितियाँ:
- सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाए तो भक्तिकाल एक मिश्रित या समन्वित संस्कृति के विकास का काल है।
- भारत में इस्लाम के आने से पहले ही कई अन्य जातियाँ का आगमन हो चुका था। इन जातियों के प्रभाव से भारत में एक मिली-जुली संस्कृति का विकास हुआ।
- इस्लाम के आने से एक बार पुनः भारत में सांस्कृतिक संक्रमण का दौर आया और खान-पान, रहन-सहन, शिक्षा, साहित्य, स्थापत्य कला, मूर्तिकला, संगीत एवं चित्रकला में काफी बदलाव देखने को मिला।
- विदेशी तुर्क एवं भारतीय स्थापत्य शैली के मिश्रण से गुजराती एवं जौनपुरी स्थापत्य शैली का विकास हुआ।
- भक्तिकाल के कवियों ने भक्ति साहित्य को संगीत से जोड़ा। वे अपनी रचनाओं को गा-गाकर लोगों तक पहुँचाते थे। कुछ कवियों ने विभिन्न रागों में भी काव्य रचना की है।
- भक्तिकाल में संगीत के साथ ही चित्रकला की भी खूब उन्नति हुई। मुगल शासकों द्वारा चित्रकला को राजाश्रय प्रदान किया गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्तिकाल में पर्व-त्योहार, उत्सव, साहित्य एवं कलाओं आदि के साथ-साथ संस्कृति के लगभग सभी क्षेत्रों में आपसी समन्वय व मिश्रण के माध्यम से एक मिश्रित अथवा समन्वित संस्कृति का विकास हुआ।
निश्चय ही भक्तिकाल का साहित्य श्रेष्ठ, अनुपम एवं अद्वितीय है। हम यकीनन कह सकते हैं कि भक्तिकाल के साहित्य को तत्कालीन परिस्थितियों ने काफी हद तक प्रभावित किया। इसी का परिणाम है कि इस काल की साहित्य रचना अपने पूर्ववर्ती वीरता और श्रृंगार से परिपूर्ण साहित्य से काफी भिन्न है। अब साहित्य में वीरता और श्रृंगार के स्थान पर भक्ति की प्रधानता हो गयी थी।
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